230. – ज़िंदगी का कनॉट प्लेस?

ये ब्लॉग पोस्ट मैं #IndiSpire पर सुझाए गए विषय #MeTime को ध्यान में रखते हुए लिख रहा हूँ। मैं ऐसा मानता हूँ कि इस का आशय ऐसा समय बिताने से है, जब आप जो करते हैं, अपने और सिर्फ अपने मन से करते हैं। आपके मस्तिष्क में कोई ऐसा टार्गेट नहीं होता जो किसी और ने दिया हो अथवा जो काम आप किसी की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए अथवा एक बंधे हुए रुटीन के अंतर्गत करते हैं।

आज की तारीख में, मैं एक सेवानिवृत्त व्यक्ति हूँ, और अब तो सेवानिवृत्त हुए लगभग 8 वर्ष बीत चुके हैं, ब्लॉग लिखता हूँ तो पूरी तरह मुक्त मन से लिखता हूँ और सामान्यतः घर की कोई ज़िम्मेदारी भी ऐसी मुझ पर नहीं है, जिसके कारण मुझे अपने मन से अलग रहकर कार्य करना पड़े।

मैं इस प्रसंग में दिल्ली में अपनी सेवा के प्रारंभिक वर्ष याद करना चाहूंगा, जब मैं पहले दिल्ली प्रेस में और उसके बाद उद्योग मंत्रालय में काम करता था और सक्रिय रूप से कविताएं भी लिखता था। कविता से जुड़े कुछ मंचों पर भी जाता था, मैं समझता हूँ कि यह भी अपने लिए ‘मुक्त समय’ खोजने की कोशिश थी। मेरा उस समय का एक गीत भी मन के घिरे होने, मुक्त न होने के खिलाफ एक पुकार जैसा था, कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं-

नींदों में जाग-जागकर, कर्ज सी चुका रहे उमर,

सड़कों पर भाग-भागकर, लड़ते हैं व्यक्तिगत समर।

छूटी जब हाथ से क़िताब, सारे संदर्भ खो गए,

सीमाएं बांध दी गईं, हम शंटिंग ट्रेन हो गए,

सूरज तो उगा ही नहीं, लाइन में लग गया शहर,

लड़ने को व्यक्तिगत समर।

अपना यह गीत मैं अपनी शुरू की एक ब्लॉग पोस्ट में शेयर कर चुका हूँ, यहाँ सिर्फ ‘शंटिंग ट्रेन’ वाली वह ज़िंदगी याद आ गई, जो दिल्ली जैसे महानगर में लोगों को बितानी पड़ती है, जितना बड़ा शहर, उतना ही वहाँ के लोगों में तनाव, ऐसा भारत में तो कम से कम है ही, और इसका एक बड़ा कारण अपर्याप्त परिवहन व्यवस्था का होना भी है।

खैर यह थोड़ा विषय से अलग हो जाएगा, लेकिन समय पर अपना वश न होने का एक फैक्टर, घर से दफ्तर के बीच की भाग-दौड़ भी होती है।

यह विषय देखते ही मुझे कनॉट प्लेस की याद आ गई, कनॉट प्लेस 1970-80 का! जहाँ कॉफी- हाउस तो था, लेकिन मैट्रो के आने की बात दूर-दूर तक नहीं थी। भीड़ उस समय भी खूब थी लेकिन आज जैसी स्थिति नहीं थी।

हमारा एक सर्किल था 10-15 मित्रों का, कोई किसी दफ्तर में, कोई पत्रकार, कुल लोगों में से आधे से अधिक कवि! वैसे हम लोग कविता पाठ आदि के लिए ‘दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी’ में भी मिलते थे, लेकिन अक्सर हम शाम के समय ‘कनॉट प्लेस’ में मिलते थे, किसी रेस्टोरेंट अथवा अधिकतर मद्रास-होटल के पास पार्क में, बिना किसी एजेंडे के, कोई भी कहीं से भी बात छेड़ दे और फिर उस पर बहस, जो कभी-कभी लड़ाई तक भी पहुंच सकती थी।

मैं समझता हूँ कि वहाँ जो समय हम बिताते थे, वह पूरी तरह मुक्त अवस्था का था। मेरे एक मित्र जो प्रभाष जोशी जी के साथ ‘जनसत्ता’ में काम करते थे, वो भी यहाँ आते थे, जब उनके सहकर्मी पूछते कि वहाँ क्यों जाते हो तो वे कहते कि यहाँ से मुझे मानसिक खुराक़ मिलती है। आज वैसा कनॉट प्लेस नहीं रहा, तो कोई और जगह होगी!

मैं यही समझता हूँ कि हर ज़िंदगी में ऐसे किसी ‘कनॉट प्लेस’ की, ऐसे स्थान, ऐसे समय की गुंजाइश है, जहाँ वह मुक्त होकर विचरण कर सके।

आज योग, ध्यान और विपश्यना आदि पर भी इसलिए बल दिया जाता है कि अपने मन के विरुद्ध काम करते-करते अनेक प्रकार के तनाव और उनके दुष्प्रभाव आज सामने आ रहे हैं। लेकिन इसके साथ ही मैं मानता हूँ कि हर व्यक्ति को कुछ समय ऐसा निकालना चाहिए, जो वह पूरी तरह अपने मन से बिताए।

नमस्कार।

     #MeTime    #Indiblogger  #IndiSpire


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