दिल्ली मेरी दिल्ली!

काफी लंबे समय के बाद दिल्ली आना हुआ, उस दिल्ली में जो लगभग डेढ़ वर्ष पहले तक मेरी थी, उसी तरह जैसे और भी लाखों, करोडों लोग इस या किसी भी महानगर को अपना मानते हैं। एक फिल्म जिसका मैंने पहले भी अपने ब्लॉग में ज़िक्र किया है- ‘कांकरर्स ऑफ दा गोल्डन सिटी’, इस फिल्म में एक आदमी आता है महानगर और कहता है कि एक दिन मैं इस शहर का मालिक बन जाऊंगा, लेकिन फिल्म के अंत में वह लुट-पिटकर वापस लौटता है।

हर कोई मुकेश अंबानी तो नहीं हो सकता, वैसे मुकेश अंबानी भी किसी महानगर का मालिक होने का दावा नहीं कर सकता। हद से हद उसका अपना परिवार बहुत सी मंज़िलों वाले घर में रह लेगा, जिसमें सोचना पड़े कि आज किस ‘फ्लोर’ को धन्य किया जाए! मुझे लगता है कि पुराने जमाने के महलों में भी इस तरह की दुविधा रहा करती होगी!
फिर दिल्ली में तो जहाँ आज के बहुत सारे नव धनाढ्य रहते हैं, वहीं बहुत से महल और किले भी हैं, जिनमें से कुछ तो खंडहर भी बन चुके हैं।

इस बार जब फिर से दिल्ली आया, किसी हद तक एक टूरिस्ट की हैसियत से तो यही खयाल आया कि वह कौन सी प्रमुख बात है जो दिल्ली को दिल्ली बनाती है!

राजा-महाराजाओं के किले तो हैं ही, जिनमें मुगल काल और यहाँ तक कि महाभारत काल तक की यादें समेटी गई हैं। इसके बाद ब्रिटिश शासकों ने भी- आज का राष्ट्रपति भवन (जो शायद वायसराय हाउस था), संसद भवन, सचिवालय, बोट क्लब और ढ़ेर सारी इमारतें बनवाई थीं, जो स्थापत्य कला की बेजोड़ धरोहर हैं।

महल और सरकारी इमारतें तैयार कराने में जहाँ शासकों का हाथ होता है, वहीं कुछ मंदिर-मस्ज़िद भी शासक बनवाते हैं, इस काम में कुछ श्रद्धालु पूंजीपतियों का भी योगदान होता है, जैसे बहुत से स्थानों पर बने लक्ष्मी नारायण मंदिर आज ‘बिड़ला मंदिर’ के नाम से जाने जाते हैं, जिन्होंने उनको बनवाया है। इसमें भी प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। बिड़ला जी का अधिक जोर मंदिर बनवाने पर है तो टाटा जी का अस्पताल अथवा रोग-अनुसंधान संबंधी संस्थान बनाने पर ज्यादा ध्यान रहा है।

हाँ एक बात और कि बेशक कुछ पहल करने वाले तो रहते ही हैं, लेकिन आज के समय में भी बहुत सारे नए-नए मंदिर श्रद्धालु जनता के पैसे से बनते जाते हैं। इसमें भी यह देखना पड़ता है कि आजकल कौन से भगवान ज्यादा चल रहे हैं। आप स्वयं भी देखें तो मालूम हो जाएगा कुछ भगवान तो पिछले दस-बीस सालों में ही ज्यादा पॉपुलर हुए हैं! वैसे पिछले कुछ समय में ही दिल्ली में लोटस टेंपल और मयूर विहार के पास बना अक्षर धाम मंदिर आधुनिक समय की बड़ी उपलब्धि हैं।

खैर मैं भटकता हुआ कहाँ से कहाँ आ गया, मैं बात इस विषय पर करना चाह रहा था कि आखिर वह क्या है जो दिल्ली को दिल्ली बनाता है! दिल्ली देश की राजधानी तो है ही, देश भर के लोग यहाँ के लगभग सभी इलाकों में इस तरह रहते हैं कि इस महानगर की अपनी अलग कोई पहचान है ही नहीं। दिन-दहाड़े यहाँ कोई किसी को मारकर चला जाए, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता!

हाँ पहचान बनाने वाले तत्वों में एक तो देश की राजनैतिक सत्ता यहाँ पर है, ये देश की राजनैतिक राजधानी है, सांस्कृतिक राजधानी कहने में तो संकोच होता है, हालांकि कुछ ऐसे संस्थान यहाँ पर हैं, जैसे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, और भी बहुत हैं, जिनका योगदान इस बेदिल नगर को सांस्कृतिक केंद्र बनाने में है।

और बहुत सारी संस्थाएं आदि हैं, जैसे देश का सर्वोच्च न्यायालय यहाँ है, जो समय-समय पर देश में हलचल पैदा करता रहता है। बहुत बड़ी भूमिका इस संस्थान की है, लोकतंत्र को मजबूत बनाने में!

एक और स्थान है दिल्ली में जहाँ प्राचीनता की मिसाल- पुराना किला है और उसके बगल में ही प्रदर्शनी मैदान है, जहाँ आधुनिकतम विकास की मिसाल बहुत सी प्रदर्शनियों से मिलती है। यहाँ लगने वाले ‘पुस्तक मेले’ भी साहित्य-प्रेमियों के लिए बहुत उपयोगी होते हैं।

बस ऐसे ही कुछ स्थानों, संस्थानों, गतिविधियों के बारे में बात करने का मन था, जो इस बेदिल शहर को अच्छी पहचान दिलाते हैं। वैसे बुरी पहचान दिलाने वाले तत्व तो बड़े शहरों में होते ही हैं।

आगे अगर टाइम मिला और मूड भी हुआ तो इन स्थानों, संस्थानों और गतिविधियों के बारे में बात करूंगा, जो राजधानी दिल्ली की पहचान हैं।

आज के लिए इतना ही, नमस्कार ।
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6 responses to “दिल्ली मेरी दिल्ली!”

  1. दिलचस्प पोस्ट!

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  2. Very nice write up on Delhi.

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  3. Wow Such a beautiful post describing the capital city. Been to all the places you have mentioned except for the ride in the metro. Someday will do that too.

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  4. धन्यवाद नीरज जी।

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  5. बहुत समय बाद हिंदी में कुछ पढ़ा. अंग्रेज़ी लिखने पढ़ने और बोलने में हिंदी से साथ जैसे छूटता जा रहा है। आपको शायद व्यंग्य लगे, पर मुझे आज ऐसा लगा कि एक पुरानी सखी से मिली हूँ ।

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