129. मन के सुर राग में बंधें!

आज फिर से प्रस्तुत है एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट-

पुरानी कविताएं, जिनको मैंने उस समय फाइनल नहीं माना यानी ‘पास्ट इंपर्फेक्ट’ कविताओं में से,
एक कविता आज प्रस्तुत है-

मुझमें तुम गीत बन रहो
मुझमें तुम गीत बन रहो,
मन के सुर राग में बंधें।

वासंती सारे सपने
पर यथार्थ तेज धूप है,
मन की ऊंची उड़ान है
नियति किंतु अति कुरूप है,
साथ-साथ तुम अगर चलो,
घुंघरू से पांव में बंधें।

मरुथल-मरुथल भटक रही
प्यासों की तृप्ति कामना,
नियमों के जाल में बंधी
मन की उन्मुक्त भावना,
स्वाति बूंद सदृश तुम बनो
चातक मन पाश में बंधे।

जीवन के ओर-छोर तक
सजी हुई सांप-सीढ़ियां,
डगमग हैं अपने तो पांव
सहज चलीं नई पीढ़ियां।

पीढ़ी की सीढ़ी उतरें,
नूतन अनुराग में बंधें।
यौवन उद्दाम ले चलें,
मन का बूढ़ापन त्यागें,
गीतों का संबल लेकर
एक नए युग में जागें।

तुम यदि संजीवनी बनो
गीत नव-सुहाग में बंधें।

                  (श्रीकृष्ण शर्मा) 

नमस्कार।
————–

6 responses to “129. मन के सुर राग में बंधें!”

  1. Very sweet poem. Really nice!

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  2. Sweet & lovely stuff

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    1. Thanks a lot.

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      1. Pleasure always for beautiful stuff mate

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      2. Most welcome.

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