आज क़ैसर उल जाफरी जी की लिखी एक गज़ल याद आ रही है, जिसके कुछ शेर पंकज उधास जी ने बड़ी खूबसूरती से गाए हैं। वास्तव में उदासी की, अभावों की और प्यार के अभाव की और लगभग दीवानगी की स्थिति को इस गज़ल के शेरों में बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति दी गई है-
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है,
हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है।
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है।
आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है।
इस बस्ती में कौन हमारे आँसू पोंछेगा
जो मिलता है उस का दामन भीगा लगता है।
दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है।
किसको ‘क़ैसर’ पत्थर मारूँ, कौन पराया है
शीश-महल में इक इक चेहरा अपना लगता है।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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