आज सुबह की घटना के बहाने बात करना चाहूंगा। सुबह के समय मैं अपनी सोसायटी के पीछे बने स्टोर से दैनिक सामान खरीदने जाता हूँ। जो वस्तुएं मैं सामान्यतः खरीदता हूँ उनमें दूध के पैकेट और फल के नाम पर कुछ केले मैं खरीदता हूँ, बाकी सब सामान के लिए घर में और लोग भी हैं न!
हाँ तो मैं आज स्टोर से दूध और केले लेकर वापस आ रहा था, तभी एक सामान्य सी घटना हुई, एक महिला जो सामान्य से वस्त्रों, साड़ी में थी, उसने दूर से ही कुछ कहना शुरू किया, मैं समझ गया कि कुछ मांग रही है और सामान्य सी प्रतिक्रिया उसको नकारने की हुई, वह पास आई और एक दो बार बोली कि बहुत भूखी है और जो स्वतः प्रतिक्रिया होती है वही दे रहा था, फिर लगा कि उसकी समस्या शायद वास्तविक हो, लेकिन वास्तव में मेरे पास खुले पैसे नहीं थे, केवल 500 का नोट था, आजकल खरीदारी भी डेबिट कार्ड से हो जाती है, सो मैंने कहा कि पैसे नहीं है।
जिस सड़क पर वह जा रही थी उसको मैंने क्रॉस कर लिया और उस मार्ग पर कुछ आगे बढ़ गई, तभी खयाल आया कि अगर वह वास्तव में भूखी थी तो मैं उसको एक-दो केले ही दे देता तो उसको भूखा नहीं रहना पड़ता! ये खयाल आने पर मैंने देखा, वह काफी आगे बढ़ चुकी थी।
गोवा में सुबह से ही धूप काफी तेज हो जाती है, मुझे खयाल आया कि अगर खाली पेट वह आगे जाकर बेहोश हो गई तो उसकी इस हालत में मेरा भी योगदान होगा।
बहुत पहले मैंने गीत पंक्तियां लिखी थीं-
झरते-झरते सूख गया है, निश्छल मानवता का झरना,
कब तक रखे सुरक्षित कोई, फटी हुई जेबों में करुणा।
हाँ आज की ज़िंदगी ही ऐसी हो गई है, सबकी अपनी-अपनी परेशानियां हैं, व्यस्तताएं हैं, कोई ज़रूरतमंद दिखता है, तो हम तुरंत इस जानकारी का सहारा लेते हैं कि लोगों ने इसको धंधा बना लिया है, ऐसे में वास्तव में जो कष्ट में है, उसको भी सहायता नहीं मिल पाती।
कई बार यह खयाल आता है कि हमारी सरकारें जनहित की अनेक पहल करती हैं, क्या भारत में हम कभी देख पाएंगे कि कोई भीख मांगता न मिले!
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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