जितने सूरज उगते देखे, उससे ज्यादा संग्राम रहे!

आज हिंदी कविता, विशेष रूप से गीतों के एक अनूठे हस्ताक्षर- स्व. भारत भूषण जी का एक और गीत शेयर कर रहा हूँ। भारत भूषण जी मेरे प्रिय गीत कवि रहे हैं और अनेक बार उनको मंचों से कविता-पाठ करते सुनने का अवसर मिला है। कुछ बार उनके गीतों को सुनकर या पढ़कर आंखों में आंसू भी आ गए हैं। उनके एक-दो गीतों का उल्लेख करूं तो- ‘चक्की पर गेंहू लिए खड़ा, मैं सोच रहा उखड़ा-उखड़ा, क्यों दो पाटों वाली चाकी, बाबा कबीर को रुला गई’, ‘आधी उमर करके धुआं, ये तो कहो किसके हुए, परिवार के या प्यार के, या गीत के, या देश के!’, ‘मैं बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुर्झाना’, ‘तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा, धरती के कागज़ पर मेरी तस्वीर अधूरी रहनी थी’। इस प्रकार के असंख्य अमर गीत स्व. भारत भूषण जी ने लिखे थे और उनमें से अनेक मैंने पहले शेयर किए हैं और आगे भी मौका मिलेगा तो करूंगा।

इसी क्रम में मैं आज भी उनका एक प्यारा सा गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसमें कवि ने यह संकल्प व्यक्त किया है कि वह तो गीत लिखने के लिए ही बने थे और गीत का संदेश ही वे अपने पाठकों को दे रहे हैं-

 

मनवंशी

मन!
कितना अभिनय शेष रहा,
सारा जीवन जी लिया, ठीक
जैसा तेरा आदेश रहा!

बेटा, पति, पिता, पितामह सब,
इस मिट्टी के उपनाम रहे,
जितने सूरज उगते देखे
उससे ज्यादा संग्राम रहे,
मित्रों मित्रों रसखान जिया,
कितनी भी चिंता, क्लेश रहा!

हर परिचय शुभकामना हुआ,
दो गीत हुए सांत्वना बना,
बिजली कौंधी, सो आँख लगीं,
अँधियारा फिर से और लगा,
पूरा जीवन आधा–आधा,
तन घर में मन परदेश रहा!

आँसू–आँसू संपत्ति बने,
भावुकता ही भगवान हुई,
भीतर या बाहर से टूटे,
केवल उनकी पहचान हुई,
गीत ही लिखो गीत ही जियो-
मेरा अंतिम संदेश रहा!

आज के लिए इतना ही।
नमस्कार।


2 responses to “जितने सूरज उगते देखे, उससे ज्यादा संग्राम रहे!”

  1. Nice poem. Melodius!

    Like

Leave a comment