गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित महाकाव्य श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड से कुछ अंश प्रस्तुत करना मैंने शुरू किया जो कम से कम दो-तीन दिन और चलेगा। मैं मुकेश जी द्वारा गये गए भाग में से ही कुछ अंश यहाँ दे रहा हूँ, जो मुझे याद आ रहे हैं।
मुझे आशा है कि इस अमर काव्य के अंश आपको भी अच्छे लग रहे होंगे, मुझे तो यह अंश शेयर करने में वास्तव में बहुत आनंद आ रहा है।
कल जो प्रसंग मैंने शेयर किया था, उसमें यह था कि सीता माता की खोज के लिए जब हनुमान जी निकलते हैं तब मार्ग में उनको सुरसा मिलती हैं, जिसे देवताओं की तरफ से हनुमान जी की परीक्षा लेने के लिए भेजा गया था।
अब उससे आगे का प्रसंग लिख रहा हूँ, सुरसा से आशीर्वाद प्राप्त करके हनुमान जी आगे बढ़ते तब उन्हें लंका के द्वार पर लंकिनी मिलती है, जो लंका के द्वार पर पहरा देती है और वह हनुमान को लघुरूप में देखकर कहती है कि लंका में जो भी चोरी से प्रवेश करता है, उसको वह खा जाती है। हनुमान जी विशाल रूप में आकर उसको एक मुक्का मारते हैं और वह बेचैन होकर बिलबिला जाती है, इसके बाद क्या होता है, मेरा विचार है कि आप इस सरस काव्य को पढ़कर समझ ही जाएंगे-
शैल विशाल देखि एक आगे, ता पर धाई चढ़ेऊ भय त्यागे,
गिरि पर चढ़ लंका तेहि देखी, कहि न जाई अति दुर्ग विसेखी।
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वन बाग उपवन वाटिका, सर कूप बापी सोहईं,
सुर, नाग, गंधर्व, कन्या, रूप मुनि मन मोहहीं।
कहीं माल, देह विशाल, शैल समान अति बल गरजहिं,
नाना अखाड़ेन भिडहिं बहुविधि, एक-एकन तर्जहिं।
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मसक समान रूप कपि धरि, लंकहि चलेऊ सुमिरि नरहरि,
नाम लंकिनी एक निशिचरी, सो कहि चलेऊ मोहे निंदरी।
जानत नहीं मरम सठ मोरा, मोर अहार जहाँ लगि चोरा।
मुठिका एक महाकपि हनि, रुधिर बमत, धरनि धनमनी।
पुनि संभारि उठी सो लंका, पाणि जोरि करि विनय सशंका।
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जब रावणहि ब्रह्म वर दीन्हा, चलत विरंचि कहा मोहि चीन्हा,
विकल होसि ते कपि के मारे, तब जानहु निसिचर संहारे।
तात मोर अति पुण्य बहूता, देखेऊ नयन राम कर दूता।
तात स्वर्ग-अपवर्ग सुख, धरिय तुला एक अंग,
तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग।
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प्रविसि नगर कीजे सब काजा, हृदय राखि कौसलपुर राजा।
आज के लिए इतना ही, आगे का प्रसंग कल शेयर करने का प्रयास करूंगा।
नमस्कार।
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