रोशनी को शहर से निकाला गया!

कभी हुआ कि घर में कामवाली अपने साथ अपने 5-6 साल के बेटे को ले आई, वह बच्चा घर में इधर-उधर घूमता है, कमर से हाथ पीछे करके निरीक्षण करता है, ये अच्छी बात है कि उसको यह एहसास नहीं है कि यहाँ उसकी मां की स्थिति क्या है! मुझे कभी लगता है कि मेरा बचपन भी ऐसा ही था, हालांकि मेरी मां को किसी के घर में काम नहीं करना पड़ा, लेकिन हम घर में करने के लिए कुछ काम लेकर आते थे, जैसे माला में मोती पिरोना आदि। मुझे अभी तक याद है कि अपने एक अमीर रिश्तेदार के घर में डाइनिंग टेबल और उसके ऊपर एक टोकरी में रखे ढेर सारे फल देखकर मुझे बहुत अचंभा हुआ था!

खैर सपनों की उड़ान तो वहाँ से ही शुरू होती है ना, जहाँ हम शुरू में होते हैं। मैंने अपने सेवाकाल के बारे में संक्षेप में लिखा, जहाँ समय पर पढ़ाई पूरी न कर पाने के कारण कोई मंज़िल सामने नज़र नहीं आती थी, वहाँ रु. 100 प्रतिमाह से लेकर उससे लगभग 100 गुना तक जाना, अपने आप में संतोषजनक तो कहा ही जा सकता है।

लेकिन मेरा स्वप्न कभी भी, या कहूं जबसे सोचना-समझना, लिखना शुरू किया, तब से यह कभी नहीं था कि मैं सेवा में किस स्तर तक अथवा कितने वेतन तक पहुंचूंगा! संघर्ष के दिनों के मेरे एक वरिष्ठ साथी थे श्री कुबेर दत्त, पता नहीं अब वे जीवित हैं या नहीं, मेरे पास उनके कई पत्र, पोस्ट कार्ड सुरक्षित रखे रहे, बहुत समय तक, वो अक्सर यही लिखते थे कि मैं तुमसे बहुत बात करना चाहता हूँ। वे दूरदर्शन में बहुत सफल प्रोड्यूसर और डाइरेक्टर रहे, बहुत से अच्छे प्रोग्राम उन्होंने तैयार किए लेकिन ये भी लागता है कि वे वहाँ जाकर कला की दृष्टि से समाप्त भी होते गए। उनके दो गीतों से पंक्तियां उद्धृत करने का मन हो रहा है, एक बहुत सुंदर गीत उनका बेरोज़गारी के दिनों का, उसकी पंक्तियां हैं-

नक्काशी करते हैं नंगे जज़्बातों पर, लिखते हैं गीत हम नकली बारातों पर,
बची-खुची खुशफहमी, बाज़ारू लहज़े में, करते हैं विज्ञापित कदम-दर-कदम।

एक गीत जो उन्होंने दूरदर्शन में सेवारत रहते हुए लिखा था, उसकी पंक्ति याद आ रही है-

उस पुराने चाव का, प्यार के बहलाव का,
दफ्तरों की फाइलें, अनुवाद कर पाती नहीं।

कुल मिलाकर बहुत से काम ऐसे हैं जो दूर से बहुत आकर्षक लगते हैं, जैसे दूरदर्शन में कार्यक्रम प्रोड्यूस करने वाला काम! मैंने भी आकाशवाणी में काम किया है, यद्यपि मैं प्रशासन में था, कलाकारों का सात बहुत मिला, लेकिन अक्सर लगता था कि कला प्रस्तुति के ऊपर दफ्तर की औपचारिकताएं ज्यादा हावी रहती हैं।

बहरहाल मैं यही कहना चाहता हूँ कि हमेशा से मेरा सपना अपनी कला के बल पर, कविताओं के बल पर नाम कमाने का था। मुझे राज कपूर जी का उदाहरण याद आता है, कितनी अच्छी टीम बनाई थी उन्होंने। इस टीम के एक सदस्य शैलेंद्र जी, वे इप्टा में नाटकों आदि के लिए डायलॉग और गीत लिखते थे, पृथ्वीराज जी ने उनसे प्रभावित होकर कहा कि मेरा बेटा फिल्म बना रहा है, उसके लिए गीत लिखो, शुरू में तो शैलेंद्र जी ने मना कर दिया लेकिन बाद में आर्थिक तंगी के कारण वे तैयार हो गया और हमें यह महान रचनाकर मिल गया!

मुझे नीता जी का किस्सा याद आ रहा है, जो उन्होंने कहीं शेयर किया था, उस समय उनका ‘सरनेम’ क्या था, पता नहीं। उन्होंने नृत्य का एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था जिसे मुकेश अंबानी ने देखा और उनको बहुत पसंद किया। बाद में उनके घर फोन आया, उन्होंने उठाया, उधर से आवाज आई-‘मैं धीरूभाई अंबानी बोल रहा हूँ’, उनको लगा कि कोई मजाक कर रहा है, और उन्होंने कहा- ‘मैं क्लिओपेट्रा बोल रही हूँ (शायद कोई और नाम था)’ और फोन रख दिया। ऐसा एक से अधिक बार हुआ बाद में उनके पिता से धीरूभाई जी की बात हुई और उन्होंने बताया कि उनका बेटा ‘मुकेश’ नीता जी से विवाह करना चाहता और इस प्रकार किस्मत धकेलते हुए उनके पास चली आई।

तो यह खेल है किस्मत का और सपनों का, मेरा सपना रहा है कि रचनात्मकता के आधार पर मैं अपना स्थान बनाऊं, कविता में, अनुवाद में भी मैं देखता हूँ कि भ्रष्ट अनुवाद करने वाले आसनों पर डेरा जमाए हैं और कोशिश करते हैं कि कोई वास्तव में क्रिएटिव व्यक्ति वहाँ घुसकर उनके नकलीपन को चुनौती न दे पाए। एक कवि की गीत पंक्ति याद आती है-

फ्यूज़ बल्बों के अद्भुद समारोह में,
रोशनी को शहर से निकाला गया।

बाकी सपनों का क्या है, वो रुकते थोड़े ही हैं आने से, कभी लगता है कि किसी प्रसिद्ध प्रोड्यूसर ने कुछ पढ़ा, वह मुरीद हो गया और उसने मुंबई बुला लिया, क्या मुंबई जाने के लिए व्यक्ति का भिक्षुक वाली स्थिति में पहुंचना जरूरी है।

बातें। तो बहुत हैं और सपने भी, लेकिन आज के लिए इतना ही,

नमस्कार।

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2 responses to “रोशनी को शहर से निकाला गया!”

  1. आपने हर किसी के सपने को शब्द दे दिए हैं !

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