अब विंध्याचल परियोजना के क्लबों का ज़िक्र कर लेते हैं। दो क्लब थे वहाँ पर, वीवा क्लब (विंध्याचल कर्मचारी कल्याण क्लब) और विंध्य क्लब। वहाँ समय-समय पर होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों के अलावा, हिंदी अनुभाग की ओर से कभी-कभी कवि गोष्ठियों का आयोजन भी हम वहाँ करते थे। अधिक प्रतिभागिता वाले कार्यक्रम तो रूसी प्रेक्षागृह में किए जाते थे।
मुझे याद है कि एक बार कविताओं पर आधारित अंत्याक्षरी प्रतियोगिता वीवा क्लब में हमने की थी, जिसमें अनेक टीमों ने भाग लिया था, काफी दिन तक यह प्रतियोगिता चली थी और प्रतिभागियों ने आगे बढ़ने के लिए बहुत से काव्य संकलन भी खरीदे थे।
खैर अभी जो मुझे क्लबों की याद आई उसका एक कारण है। हमारे बच्चे लोग क्लबों में खेलने के लिए जाते थे, एक रोज़ शाम को मेरा बड़ा बेटा क्लब से घबराया हुआ घर आया, आते ही उसने अपनी मां से पूछा- ‘मां, पापाजी कहाँ हैं’ और उसको यह जानकर तसल्ली हुई कि मैं घर पर ही था और ठीक-ठाक था।
असल में उसने क्लब में सुना था कि किसी- एस.के.शर्मा ने आत्महत्या कर ली है। यह एक बड़ी दुखद घटना थी, जो वहाँ देखने को मिली। इस घटना की पृष्ठभूमि के संबंध में, बाद में ‘मनोहर कहानियां’ मे “डर्टी कल्चर” नाम से लंबी स्टोरी छपी थी। खैर उसके संबंध में चर्चा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।
ये बड़ी अजीब बात है कि जो वांछनीय नहीं है, वही इन पत्रिकाओं के लिए – ‘मनोहर कहानी’ होता है, ‘मधुर कथा’ या ‘सरस कथा’ होता है। ये पत्रिकाएं अपराधों के संबंध में रस ले-लेकर कहानी सुनाती हैं और मेरा पूरा विश्वास है कि इससे अपराध को बढ़ावा मिलता है। आजकल टीवी पर भी इस प्रकार के कार्यक्रम आते हैं। इनको बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।
अब कवियों और कवि सम्मेलनों के संबंध में बात कर लेते हैं। विंध्याचल परियोजना में जाने के बाद, शुरु के ही एक आयोजन में ऐसा हुआ था कि हमने नीरज जी को भी आमंत्रित किया था और सुरेंद्र शर्मा को भी बुला रहे थे। उस समय हमारे विभागध्यक्ष थे श्री आर.एन. रामजी। सुरेंद्र शर्मा ने जो राशि मांगी थी वह नीरज जी से तीन गुना थी, यह अनुपात तो शायद आज भी कायम होगा, शायद और बढ़ गया हो, लेकिन श्री रामजी ने कहा, इस कवि को कभी मत बुलाना, मैं इस बात पर हमेशा कायम रहा। अगर हमें भारी रकम देकर चुटकुले ही सुनने हैं, तो कपिल शर्मा जैसे किसी व्यक्ति को बुलाएंगे, कविता के नाम से चुटकुले क्यों सुनेंगे।
एक और आयोजन में हमारे यहाँ श्री सूंड फैज़ाबादी आए थे, वे बोले कि शुरू में लोग हमको मंच पर नहीं चढ़ने देते थे, कहते थे हास्य वाला है। फिर वो बोले कि अब हम फैसला करते हैं कि मंच पर कौन चढ़ेगा। मैंने खैर खयाल रखा कि हमारे आयोजनों में ऐसा न हो पाए। हमने हास्य के ओम प्रकाश आदित्य, प्रदीप चौबे, जैमिनी हरियाणवी, माणिक वर्मा जैसे ख्याति प्राप्त कवियों को बुलाया, लेकिन मंच पर विशेष दर्जा हमेशा साहित्यिक कवियों को दिया।
हमारे आयोजन में श्री शैल चतुर्वेदी एक बार ही आए थे, मुझे याद है उस समय रीवा जिले के युवा एसएसपी- श्री राजेंद्र कुमार भी आए थे और वे शैल जी के साथ काफी फोटो खिंचवाकर गए थे। शैल जी से आयोजन के बाद बहुत देर तक बात होती रही। वे मेरे संचालन से बहुत खुश थे, बोले आप इतना धाराप्रवाह बोलते हो बहुत अच्छा लगा। उन्होंने बताया कि शंकर दयाल शर्मा जी (उस समय के राष्ट्रपति) हर साल राष्ट्रपति भवन में कवि गोष्ठी करते हैं,जिसमें वह जाते थे और उनका कहना था कि अगले साल वो राष्ट्रपति भवन में मुझे बुलाएंगे और मुझे आना होगा। खैर उसके बाद शैल जी ज्यादा समय जीवित भी नहीं रहे थे।
कुछ कवि सम्मेलन तो ऐसे यादगार रहे कि आनंद के उन पलों को आज भी याद करके बहुत अच्छा लगता है। श्री सोम ठाकुर जी का श्रेष्ठ संचालन और उसमें अन्य अनेक ख्यातिप्राप्त कवियों के साथ-साथ श्री किशन सरोज का गीत पाठ –
छोटी से बड़ी हुई तरुओं की छायाएं,
धुंधलाई सूरज के माथे की रेखाएं,
मत बांधो आंचल में फूल चलो लौट चलें,
वह देखो, कोहरे में चंदन वन डूब गया।
माना सहमी गलियों में न रहा जाएगा,
सांसों का भारीपन भी न सहा जाएगा,
किंतु विवशता है जब अपनों की बात चली,
कांपेंगे अधर और कुछ न कहा जाएगा।
सोने से दिन, चांदी जैसी हर रात गई,
काहे का रोना जो बीती सो बात गई,
मत लाओ नैनों में नीर कौन समझेगा,
एक बूंद पानी में एक वचन डूब गया।
दाह छुपाने को अब हर पल गाना होगा,
हंसने वालों में रहकर मुसकाना होगा,
घूंघट की ओट किसे होगा संदेह कभी,
रतनारे नयनों में एक सपन डूब गया।
मन हो रहा था कि पूरा ही गीत यहाँ उतार दूं, लेकिन स्थान की दिक्कत है, यह एक ऐसा गीत है जैसे कोई डॉक्युमेंट्री फिल्म चल रही हो, ऐसी फिल्म जिसमें मन के भीतर की छवियां बड़ी कुशलता के साथ उकेरी गई हैं। कुछ पंक्तियां किशन सरोज जी के एक और प्रसिद्ध गीत की, इस प्रकार हैं-
धर गए मेहंदी रचे, दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों ताल सा हिलता रहा मन।
तुम गए क्या जग हुआ अंधा कुआं
रेल छूटी रह गया केवल धुआं,
हम भटकते ही फिरे बेहाल,
हाथ के रूमाल सा, हिलता रहा मन।
बांचते हम रह गए अंतर्कथा,
स्वर्णकेशा गीत वधुओं की व्यथा,
ले गया चुनकर कंवल, कोई हठी युवराज,
देर तक शैवाल सा हिलता रहा मन।
आज के लिए इतना ही।
नमस्कार।
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