एनटीपीसी की सभी परियोजनाओं की तरह, विंध्याचल परियोजना में भी स्थापना दिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 7 नवंबर को बड़ा आयोजन किया जाता है। जैसा मैंने बताया इन आयोजनों में अभिजीत, अनूप जलोटा तथा जगजीत सिंह जैसे बड़े कलाकार आ चुके थे। जगजीत सिंह के कार्यक्रम के समय तो अलग ही माहौल था। विशाल स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में यह आयोजन किया गया था, श्रमिक यूनियन हड़ताल पर थीं। इस प्रकार स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स के भीतर सीमित संख्या में श्रोता बैठे थे और बाहर सड़क पर बड़ी संख्या में कर्मचारी बंधु बैठकर उस कार्यक्रम का आनंद ले रहे थे।
उसके अगले दिन पड़ौसी परियोजना की शक्तिनगर टाउनशिप में यह कार्यक्रम रखा गया था, वहाँ भीड़ ज्यादा थी, कुछ गज़लें जगजीत सिंह जी ने सुनाईं, उसके बाद एक पंजाबी गीत सुनाया और उसके बाद लगातार पंजाबी गीत की डिमांड आने लगी। अंत में जगजीत जी को कहना पड़ा कि अगली बार आप गुरदास मान जी को बुलाइएगा।
एक बात जो मेरे उस समय के सहयोगी श्री अरुण कुमार मिश्रा जी ने, आज ही याद दिलाई, एक बार स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में कवि सम्मेलन चल रहा था, आधी रात के समय बारिश आ गई, तुरंत कार्यक्रम को रूसी प्रेक्षागृह में शिफ्ट किया गया। परियोजना में विभिन्न विभागों की हमारी टीम शानदार थी और सभी इन कार्यक्रमों में रुचि लेते थे। इस प्रकार कार्यक्रम में साहित्य के आस्वादन के अलावा रोमांच की भी हिस्सेदारी हो गई।
एकाध बार हमने देखा कि खुले में चल रहे कार्यक्रम के दौरान कोई सज्जन उठकर जाने लगे तो बगल वाले को बताया कि कंबल लेने जा रहे हैं।
रूसी प्रेक्षागृह के संबंध में बता दूं कि विंध्याचल परियोजना रूसी सहयोग से स्थापित की गई थी और उस समय तक वहाँ रूसी विशेषज्ञ ‘रशियन कॉम्प्लेक्स’ में रहते थे, उसमें ही यह हॉल भी था, जिसे ‘रशियन ऑडिटोरियम’ या रूसी प्रेक्षागृह कहते थे।
एक बात और जो मिश्रा जी ने याद दिलाई, वैसे शायद मैं बाद में इसका ज़िक्र करता, हिंदी पखवाड़े के दौरान हम हिंदी के किसी साहित्यकार को विशेष व्याख्यायन के लिए आमंत्रित करते थे। इनमें दो प्रमुख नाम, जो अभी याद आ रहे हैं, वे थे- डॉ. विद्या निवास मिश्र जी और प. विष्णुकांत शास्त्री जी। यह सोचकर संतोष होता है कि मुझे इन महान व्यक्तियों को निकट से जानने और इनके चरण स्पर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ।
वैसे हमारी विंध्यनगर टाउनशिप भी एकदम प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है, पं. विष्णुकांत शास्त्री जी का कहना था कि वे इस वातावरण में कुछ दिन रहकर लेखन कार्य करना चाहेंगे। खैर बाद में तो वे राज्यपाल बन गए थे और ऐसा सोचना भी उनके लिए संभव नहीं रहा होगा। जिस समय वे आए थे उस समय वे कोलकाता विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे।
स्थापना दिवस के आयोजनों में कई तरह के प्रयोग किए गए। जैसे पहले मुंबई से किसी फिल्मी कलाकार को बुलाया गया, काफी बड़े बजट के साथ। कई बार ऐसा भी किया गया कि तीन दिन तक अलग-अलग कार्यक्रम किए गए। ऐसा ही एक अनुभव बता रहा हूँ।
कई बार हमने लखनऊ से कुछ ऐसे गायक कलाकारों को बुलाया जो मुंबई की चौखट तक जाकर लौट आए थे। इनमें से ही एक महिला गायिका थीं, नाम याद नहीं आ रहा है, उनका कहना था कि वे मुंबई से जान बचाकर वापस आई थीं,क्योंकि उस समय लता बाई की दादागिरी चलती थी। मैं इस पर अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा। इक़बाल सिद्दीक़ी जी ने भी बहुत संघर्ष किया था। एक गीत इन्होंने गाया हुआ था, वो इनको नहीं दिया गया क्योंकि ये गायक एसोसिएशन के सदस्य नहीं थे, वह गीत श्री महेंद्र कपूर से गवाया गया था। अभी याद नहीं आ रहा कि वह गीत कौन सा था।
खैर एक अवसर पर हमने इन दोनों की टीमों को बुलाकर कार्यक्रम रखा था, जो बहुत सफल रहा था। मेरे मन में यह था कि एक बार इक़बाल सिद्दीक़ी साहब का अकेले का कार्यक्रम रखा जाए। कुछ वर्षों के अंतराल से जब हमने तीन दिन के कार्यक्रम रखे, तब पहले दिन का कार्यक्रम सिद्दीक़ी जी का रखा।
मैं जिस कारण से इसका उल्लेख कर रहा हूँ, वह है कि कई फैक्टर होते हैं, किसी कार्यक्रम के सफल होने के लिए ज़िम्मेदार। गज़ल के या किसी भी कार्यक्रम की सफलता के लिए एक वातावरण निर्मित होना ज़रूरी होता है। अब यह आयोजन था स्थापना दिवस के अवसर पर, रूसी प्रेक्षागृह में, पहली बात जो मैंने नोटिस की कि बहुत से साथी अपने बच्चों को लेकर आए हुए थे, जो वहाँ भागदौड़ कर रहे थे। संभव है साउंड सिस्टम उतना प्रभावी न हो। यह भी संभव है कि उम्र ने सिद्दीक़ी जी की आवाज़ में वह ताक़त न छोड़ी हो।
कारण जो भी, उस दिन वह कार्यक्रम जमा नहीं। नतीज़ा? मैं और मेरे बॉस – श्री एस.के.आचार्य 24 घंटे तक बहुत टेंशन में रहे। अगले दिन भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ के द्वारा नाटक मंचित किया गया- वल्लभपुर की रूपकथा। पूरा नाटक दर्शकों ने डूबकर देखा और इसके पूरा होने पर 5 मिनट तक लगातार तालियां बजती रहीं। उन तालियों की ध्वनि में हमारी टेंशन हवा हो गई। इसके बाद अंतिम आयोजन- कवि सम्मेलन तो आनंद से भरपूर होना ही था।
ये उल्लेख इसलिए किया कि आयोजन करने में केवल आनंद ही नहीं आता, बहुत क्रिएटिव टेंशन भी झेलनी पड़ती है। इसके अलावा ऐसा भी हुआ कि सभी ओर से जब सफल आयोजन के लिए मुझे बधाई मिली तो हमारे साथी, जो आयोजन के लिए फिज़िकल अरेंजमेंट करते थे, वे बोले कि पूरी मेहनत हम करते हैं और क्रेडिट एक इंसान को मिल जाता है। इस पर एक बार बॉस ने कहा- ‘सब बहुत खुश थे, बैठने की व्यवस्था बहुत अच्छी थी, खाने-पीने का प्रबंध भी बहुत अच्छा किया गया था। मानो लोग घर से, कार्यक्रम में इसलिए आते हैं, कि घर पर बैठने की व्यवस्था अच्छी नहीं होती, खाने को अच्छा नहीं मिलता!
बहुत डर लगता है मुझको कि कहीं ज्यादा बोर न कर दूं। अब किस्सा यहीं खत्म करता हूँ।
अब अपनी एक कविता शेयर कर लेता हूँ, कभी-कभी ये काम भी करना चाहिए न?
जड़ता के बावज़ूद
चौराहे पर झगड़ रहे थे
कुछ बदनाम चेहरे,
आंखों में पुते वैमनस्य के बावज़ूद
भयानक नहीं थे वे।
भीड़ जुड़ी
और करने लगी प्रतीक्षा-
किसी मनोरंजक घटना की।
कुछ नहीं हुआ,
मुंह लटकाए भीड़
धाराओं में बंटी और लुप्त हो गई।
अगले चौराहे पर,
अब भी जुटी है भीड़
जारी है भाषण-
एक फटे कुर्ते-पाजामे का,
हर वाक्य
किसी जानी-पहचानी-
नेता या अभिनेता मुद्रा में,
भीड़ संतुष्ट है यह जान
कि एक और व्यक्ति हो गया है पागल,
जिसके मनोरंजक प्रलाप
बहुतों को नहीं खोने देंगे
मानसिक संतुलन-
जड़ता के बावज़ूद।
(श्रीकृष्ण शर्मा)
अंत में जगजीत सिंह जी को याद करते हुए, समाप्त करूंगा –
शब-ए-फुरक़त का जागा हूँ, फरिश्तों अब तो सोने दो
कभी फुर्सत में कर लेना हिसाब, आहिस्ता-आहिस्ता।
फिर मिलेंगे, नमस्कार।
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