51. लेकिन दृश्य नहीं बदला है !

लीजिए प्रस्तुत है एक और पुराना ब्लॉग-

आज बहादुरी के बारे में थोड़ा विचार करने का मन हो रहा है।


जब जेएनयू में, करदाताओं की खून-पसीने की कमाई के बल पर, सब्सिडी के कारण बहुत सस्ते में हॉस्टलों को बरसों-बरस पढ़ाई अथवा शोध के नाम पर घेरकर पड़े हुए, एक विशेष विचारधारा के विषैले प्राणी हाथ उठाकर देश-विरोधी नारे लगाते हैं, तब एक बार खयाल आता है कि क्या इसको ही बहादुरी कहते हैं!

वैसे आजकल सेना के बारे में उल्टा-सीधा बोलने को भी काफी बहादुरी का काम माना जाता है। कुछ लेखक और पत्रकार इस तरह के लेख, रिपोर्ताज आदि के बल पर अपने विज़न की व्यापकता की गवाही देने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते।

शिव सैनिकों की बहादुरी भी यदा-कदा उत्तर भारतीयों पर और कभी टोल-नाकों पर काम करने वालों पर निकलती रहती है। इसमें और बढ़ोतरी हो जाती है जब अपने को बालासाहब का सच्चा वारिस मानने वाले दोनों भाइयों के बीच प्रतियोगिता हो जाती है कि किसके चमचे ज्यादा बहादुरी दिखाएंगे।

पिछले दिनों मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन के दौरान, कांग्रेसी नेताओं ने बड़ी बहादुरी भरी भूमिका निभाई, कांग्रेस की एक विधायक ने जब अपने चमचों से खुले आम यह कह दिया कि थाने में आग लगा दो, तब शायद वे अपने आप को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ रही एक महान सेनानी मान रही थीं। वैसे देखा जाए तो वह उस महिला की बेवकूफी ही थी, ऐसी बहादुरी लोग चोरी-छिपे करते हैं।

कोई भी आंदोलन हो, तब ऐसे लोगों को महान मौका मिलता है जो जीवन में कुछ नहीं कर पाए हैं और ऐसा लगता भी नहीं कि कुछ करेंगे, कोई उनकी बात नहीं सुनता, कुंठित हैं ऐसे में वे किसी बस में, ट्रक में या कार में आग लगा देते हैं, किसी दुकान को जला देते हैं और यह बताते हैं कि वो भी कुछ कर सकते हैं।

क्या उस समय मौके पर रहने वाले सभी लोग इसी मानसिकता के होते हैं? इस तरह के लोग, यह नीच कार्य करके कैसे बच निकलते हैं? क्या वहाँ कोई ऐसा नहीं होता, जो स्वयं जाकर या गुप्त रूप से पुलिस को यह बता कि इन महान प्राणियों ने यह निकृष्ट कार्य किया है। क्या पुलिस भी ऐसे में जानते हुए कोई कार्रवाई नहीं करती। विरोध करने का हक़ तो सभी को है लेकिन सार्वजनिक या व्यक्तिगत संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों को ऐसा सबक मिलना चाहिए कि वे दुबारा ऐसी बहादुरी करने के बारे में न सोच सकें।

इस शृंखला में जहाँ शिव सैनिकों की महान भूमिका वहीं भारतीय संस्कृति का रक्षक होने का दावा करने वाले बजरंग दल , गौ रक्षक आदि पर भी जमकर नकेल कसे जाने की ज़रूरत है। सत्तरूढ़ दल को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि इनके दम पर वे सत्ता में फिर से आ सकते हैं।

सबका साथ- सबका विकास, इस नारे को जरा भी अपनी दृष्टि से ओझल नहीं करना चाहिए बीजेपी को, यदि वे वास्तव में देश की सेवा करना चाहते हैं और इसके लिए आगे भी सत्ता में आना चाहते हैं।

आज अपने एक और लघु गीत को शेयर करने का मन हो रहा है, जो हमारी विकास यात्रा की एक झलक देता है-

मीठे सपनों को कडुवाई आंखों को
दिन रात छला है।
कितने दर्पण तोड़े तुमने
लेकिन दृश्य नहीं बदला है।

बचपन की उन्मुक्त कुलांचे
थकी चाल में रहीं बदलती,
दूध धुली सपनीली आंखें
पीत हो गईं- जलती-जलती,
जब भी छूटी आतिशबाजी-
कोई छप्पर और जला है।

कितने दर्पण तोड़े तुमने
लेकिन दृश्य नहीं बदला है।।

नमस्कार।