52. पर हमें ज़िंदगी से बहुत प्यार था!

लीजिए आज फिर से प्रस्तुत है एक और पुराना ब्लॉग-
मेरे एक पुराने मित्र एवं सीनियर श्री कुबेर दत्त का एक गीत मैंने पहले भी शेयर किया है, उसकी कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-

करते हैं खुद से ही, अपनी चर्चाएं
सहलाते गुप्प-चुप्प बेदम संज्ञाएं,
बची-खुची खुशफहमी, बाज़ारू लहज़े में,
करते हैं विज्ञापित, कदम दर कदम।

चलिए आज खुद से एक सवाल पूछता हूँ और उसका जवाब देता हूँ।
सवाल है, आपको ब्लॉग लिखने की प्रेरणा किससे मिलती है?
अब इसका जवाब देता हूँ।
आज इंटरनेट का युग है और इसमें लोग अन्य तरीकों के अलावा ब्लॉग लिखकर भी खुद को अभिव्यक्त करते हैं।

मेरी दृष्टि में तो ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी प्रेरणा तो गोस्वामी तुलसीदास जी थे। रामकथा के बहाने उन्होंने दुनिया की किस समस्या अथवा किस भाव पर अपने विचार नहीं रखे हैं। उनकी लिखी हजारों टिप्पणियों पर आधारित ब्लॉग लिखे जा सकते हैं। जैसे-

वंदऊं खल अति सहज सुभाए, जे बिनु बात दाहिने-बाएं।

पराधीन सपनेहु सुख नाही।

मैं यहाँ यही उदाहरण दे रहा हूँ, अन्यथा उदाहरण तो लगातार याद आते जाएंगे।
जो अच्छे फिल्म निर्माता हैं, वे भी ब्लॉगिंग के लिए बहुत बड़ी प्रेरणा माने जा सकते हैं।

मेरे लिए इस श्रेणी में राज कपूर सबसे पहले आते हैं। कई बार उनकी फिल्में, ऐसा लगता है कि अपने आप में एक सुंदर सी कविता अथवा ब्लॉग की तरह लगती हैं। ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ से शुरू होकर उनकी शुरुआती फिल्में अनेक संदेश देती लगती हैं। एक देहाती व्यक्ति जो शहर में आता है, शुरू में खूब धोखा खाता है, बाद में चुनौती स्वीकार करता है और सबको अपनी चालाकी के सामने फेल कर देता है।
कुछ लाइनें जो मन में अटकी रह जाती हैं-

उल्टी दुनिया को, सीधा करके देखने के लिए, सिर के बल खड़ा होना पड़ता है।

रोना सीख लो, गाना अपने आप आ जाएगा।

यहाँ भी, दो ही उदाहरण दे रहा हूँ, क्योंकि ये तो लगातार याद आते जाएंगे।
आज का ब्लॉग लिखने के लिए, दरअसल मुझे एक फिल्म याद आ रही थी। फिल्म के नायक थे- मोती लाल । यह फिल्म मैंने देखी नहीं है लेकिन याद आ रही थी।
असल में इस फिल्म का एक गीत है, मुकेश जी की आवाज़ में, यह गीत मुझे मेरे एक मित्र- श्री शेज्वल्कर ने सुनाया था, बहुत पहले, जब मैं अपनी शुरुआती सरकारी नौकरी कर रहा था, उद्योग भवन में जहाँ वे मेरे साथ काम करते थे। कहानी भी शायद उन्होंने ही बताई थी।

एक आम आदमी की कहानी, जो लॉटरी का टिकट खरीदता है, मान लीजिए एक लाख के ईनाम वाला (उस जमाने के हिसाब से बोल रहा हूँ) । पत्नी बोलती है कि ईनाम आया तो मेरे लिए यह लाना, कुछ बेटा बोलता है, कुछ बेटी बोलती है, ईनाम की पूरी राशि का हिसाब हो जाता है, उस गरीब के, खुद के लिए कुछ नहीं बचता।

फिल्म का पहला सीन है कि उस व्यक्ति की शव-यात्रा निकल रही है, लॉटरी का ईनाम मिल जाने के बाद, सारी कहानी फ्लैश-बैक में है, उस शव-यात्रा के साथ मुकेश जी का यह गीत है, ‘रिसाइटेशन’ के अंदाज़ में, ‘रिसाइटेशन’ यह शब्द मैैं इसलिए जान-बूझकर इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि बच्चा जब कोई कविता पढ़ता है तो उसकी पूरी आस्था और निष्ठा उसमें शामिल होती है। वैसे मुकेश जी के गायन के साथ भी हमेशा मुझे ऐसा लगा है, कि उसमें यह गुण शामिल रहता है।

मैं भी उसी आस्था और निष्ठा के साथ यह पूरा गीत यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ-

ज़िंदगी ख्वाब है, था हमें भी पता
पर हमें ज़िंदगी से बहुत प्यार था,
सुख भी थे, दुख भी थे-दिल को घेरे हुए,
चाहे जैसा था, रंगीन संसार था।

आ गई थी शिकायत लबों तक मगर
इसे कहते तो क्या, कहना बेकार था,
चल पड़े दर्द पीकर तो चलते रहे,
हारकर बैठ जाने से इंकार था।
चंद दिन का बसेरा था अपना यहाँ,
हम भी मेहमान थे, घर तो उस पार था।

हमसफर एक दिन तो बिछड़ना ही था-
अलविदा, अलविदा, अलविदा,अलविदा।

आज के लिए इतना ही, नमस्कार।
*********

4 responses to “52. पर हमें ज़िंदगी से बहुत प्यार था!”

  1. Beautiful !! Bahut khoob. Bahut hi achcha aur dilchasp blog hai.

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    1. Thanks a lot.

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  2. Why we write blog? Reasons you have written are very interesting.

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    1. Thanks Nalini Ji.

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