10. रोज़गार दफ्तर की फाइलें भरें

 ऐसा हुआ कि आगे पढ़ाई जारी रखने की तो गुंजाइश नहीं बची थी और तुरंत कोई काम तलाशने की भी ज़रूरत थी। उन दिनों हमारे पड़ौस में ही एक सज्जन रहते थे, जो व्यवसायी थे और उनके कुछ संपर्क थे, सो उन्होंने एक संदर्भ दिया और उनकी सलाह पर मैंने चांदनी चौक में जाकर संपर्क किया, और मुझे काम मिल गया, अब उसे रोज़गार कहें या अर्द्ध रोज़गार, कुछ इस प्रकार था-

नियोजक- पीताम्बर बुक डिपो, तेजराम पीताम्बर लाल का अंकगणित मशहूर रहा है, सभी स्कूलों में उनकी ही गणित की किताब लगती थी, शायद अभी भी लगती हो। उनके ही बेटों ने स्कूली पुस्तकों का व्यवसाय आगे बढ़ाया। चांदनी चौक में कटरा नील के पास ही कोई अहाता था शायद, पतली सी गली से अंदर जाकर, चौकोर से अहाते में शायद 7-8 दुकानें थीं। इनमें से दो पीताम्बर बुक डिपो के पास थीं। 

मेरा काम था किताबों की खुदरा बिक्री के मामले में बिल आदि बनाना। तनख्वाह थी 100 रु. महीना। ओवरटाइम आदि मिलाकर महीने में करीब 125 हो जाते थे। ओवरटाइम के लिए अक्सर रविवार को लाला के पूसा रोड स्थित मकान पर जाना होता था।

उस समय शाहदरा से दिल्ली आने के लिए 6 रुपये में रेल यात्रा का मासिक पास बनता था। इस प्रकार ये पहला रोज़गार या अर्द्ध रोज़गार प्रारंभ हुआ।

उसी अहाते में, हमारे एकदम बगल में कपड़े की दुकान थी, जहाँ काफी गतिविधि रहती थी। उनके एजेंट बाहर सड़क से ग्राहकों को तैयार करके लाते थे और फिर बड़े शिष्टतापूर्ण अंदाज़ में उन्हें बताया जाता था कि अभी-अभी ताज़ा माल आया है और ये कि हम तो एक्स्पोर्ट करते हैं,बहुत बढ़िया क्वालिटी का कपड़ा है, कहीं और नहीं मिलेगा। खैर अगर ग्राहक कपड़ा ले गया और वह लोकल है, तो यह निश्चित होता था कि वो दुबारा शिकायत लेकर आएगा, और उस समय ये सुसभ्य और शिष्ट विक्रेता बंधु दूसरी भूमिका में तैयार रहते थे, और सीधे यह बोल देते थे कि आप हमारे यहाँ से कपड़ा नहीं लेकर गए हैं।

खैर शाहदरा के सीमित दायरे से बाहर निकलकर आए, तो जीवन के बहुत से रंग देखने को मिले। पीताम्बर बुक डिपो की ही बात करें तो उनका अधिकतम व्यवसाय, एक प्रकाशक के रूप में थोक बिक्री का था। इसके लिए उन्होंने कुछ सेल्स रिप्रेजेंटेटिव रखे हुए थे, जो दौरा करते रहते थे और वहाँ दूसरे शहर में जाकर, उन्होंने क्या किया उसकी दैनिक रिपोर्ट डाक से भेजते थे।

एक बार ऐसा हुआ कि एक विक्रय प्रतिनिधि की सात दैनिक रिपोर्टें एक साथ आ गईं। उनमें से 3 रिपोर्टें तो उन दिनों की थी जो बीत चुके थे, एक रिपोर्ट जो दिन चल रहा था उसकी थी और तीन रिपोर्टें आने वाले दिनों की थीं। असल में उन महोदय ने किसी को आने वाले सात दिनों की वे रिपोर्टें लिखकर दीं और उससे कहा था कि नंबर से हर रोज़, एक-एक रिपोर्ट डाक में डालते जाना, लेकिन वह मूर्ख, उनकी क्रिएटिविटी को नहीं समझ पाया और उसने सभी रिपोर्टें एक साथ डाक में डाल दीं।

एक और घटना याद आ रही है। सरकारी स्कूलों में वैसे तो सभी किताबें सरकार द्वारा निर्धारित होती हैं, बस कुछ मामलों में शिक्षकों को छूट होती है। एक ऐसा ही मामला था। स्कूल में आठवीं कक्षा में व्याकरण की पुस्तक शिक्षक अपनी इच्छा से चुन सकते थे। एक स्कूल था जिसमें आठवीं कक्षा के चार सेक्शन थे, प्रत्येक सेक्शन में 50 बच्चे। एक शिक्षक ने हमारे यहाँ बताया कि वे हमारी व्याकरण की पुस्तक अपने यहाँ लगवा देंगे। 200 बच्चों के लिए किताब लगवाने पर, 25% कमीशन के रूप में 50 पुस्तकों का मूल्य वे एडवांस में हमसे ले गए। लेकिन स्कूल की आठवीं कक्षा के चार सेक्शंस में चार शिक्षक थे। एक-एक शिक्षक ने अलग-अलग प्रकाशक को चारों सेक्शंस में पुस्तक लगवाने की बात कहकर 50 पुस्तकों की कीमत कमीशन के रूप में प्राप्त कर ली। इसके बाद प्रत्येक सेक्शन में अलग-अलग प्रकाशक की पुस्तक लग गई, प्रत्येक शिक्षक ने 50 पुस्तकों का मूल्य कमीशन के रूप में प्राप्त कर लिया और उन चारों प्रकाशकों ने मुफ्त में अपनी 50-50 पुस्तकें स्कूल में प्रदान कर दीं। इस तरह मालूम होता है कि हमारे यहाँ शिक्षक भी कितने महान हैं। अगर सभी पुस्तकें चुनने के अधिकार उन्हें मिल जाए तो फिर भगवान ही मालिक है।

अब कमीशनखोरी के इस प्रसंग के बाद आज आगे कुछ नहीं कहूंगा।

खैर अपने इस अर्द्ध रोज़गार की अवधि में लिखी गई एक कविता शेयर कर रहा हूँ-

(हीन ग्रंथि- इंफीरिओरिटी कॉम्प्लेक्स)

 

इंद्रधनुष सपनों को, पथरीले अनुभव की

ताक पर धरें,

आओ हम तुम मिलकर, रोज़गार दफ्तर की

फाइलें भरें।

गर्मी में सड़कों का ताप बांट लें,

सर्दी में पेड़ों के साथ कांप लें,

बूंद-बूंद रिसकर आकाश से झरें।

रोज़गार दफ्तर की फाइलें भरें॥

 

ढांपती दिशाओं को, हीन ग्रंथियां,

फूटतीं ऋचाओं सी मंद सिसकियां।

खुद सुलगे पिंड हम, आग से डरें।

रोज़गार दफ्तर की

फाइलें भरें।

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