दो दिन पहले ही मैंने छायावाद युग के एक स्तंभ रहे स्वर्गीय सुमित्रानंदन पंत जी की एक रचना शेयर की थी| आज इसी युग के एक और महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| प्रसाद जी को उनके महाकाव्य- ‘कामायनी’ के लिए विशेष रूप से जाना जाता है|
आज की इस रचना में सुबह होने का वर्णन उन्होंने किस तरीके से किया है, इसका आनंद लीजिए-
बीती विभावरी जाग री!
अंबर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी!
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा किसलय का अंचल डोल रहा, लो यह लतिका भी भर लाई- मधु मुकुल नवल रस गागरी|
अधरों में राग अमंद पिए, अलकों में मलयज बंद किए, तू अब तक सोई है आली, आँखों में भरे विहाग री!
आज मैं हिन्दी के एक श्रेष्ठ कवि श्री राजेश जोशी जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ, रचना अपनी बात स्वयं कहती है, इसलिए मैं अलग से कुछ नहीं कहूँगा, कुल मिलाकर यह विपरीत स्थितियों का सामना स्वाभिमान और खुद्दारी के साथ करने का संदेश देने वाली रचना है|
लीजिए आज प्रस्तुत है, श्री राजेश जोशी जी की यह रचना –
जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएँगे
कठघरे में खड़े कर दिये जाएँगे, जो विरोध में बोलेंगे जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे|
बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज हो उनकी कमीज से ज्यादा सफ़ेद, कमीज पर जिनके दाग नहीं होंगे, मारे जाएँगे
धकेल दिये जाएंगे कला की दुनिया से बाहर, जो चारण नहीं होंगे जो गुण नहीं गाएंगे, मारे जाएँगे|
धर्म की ध्वजा उठाने जो नहीं जाएँगे जुलूस में, गोलियां भून डालेंगी उन्हें, काफिर करार दिये जाएँगे|
सबसे बड़ा अपराध है इस समय, निहत्थे और निरपराधी होना, जो अपराधी नहीं होंगे, मारे जाएँगे|
वसीम बरेलवी साहब की एक गज़ल याद आ रही है, बस उसके शेर एक-एक करके शेयर कर लेता हूँ। बड़ी सादगी के साथ बड़ी सुंदर बातें की हैं, वसीम साहब ने इस गज़ल में। पहला शेर तो वैसा ही है, जैसा हम कहते हैं, कोई बहुत सुंदर हो तो उसको देखकर-
आपको देख कर देखता रह गया क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया।
ये बात तो उनकी हुई, कि उन्होंने अपनी झलक से जैसे मंत्रमुग्ध कर दिया हो, अब आपके पास क्या है मियां? आपकी बातें, आपके जज़्बात, आपका अंदाज-ए-बयां। उसके दम पर ही आपको तो अपनी छाप छोड़नी होगी न! आपने अपनी सारी प्रतिभा, सारी ईमानदारी, सब कुछ लगा दिया उसको प्रभावित करने में, लेकिन आखिर में हुआ तो बस इतना-
आते-आते मेरा नाम-सा रह गया उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया।
अब ये सब कैसे समझाया जाए कि जहाँ पर तबीयत जम जाए, ऐसा लगता है कि वो तो बस सामने ही रहे और हम उसको देखते रहें, लेकिन ऐसे में अचानक ऐसा होता है, और हम फिर से देखते ही रह जाते हैं-
वो मेरे सामने ही गया और मैं रास्ते की तरह देखता रह गया।
होता यह भी है आज के समय में कि जब आप अपनी खूबियों से, जो आपके अंदर हैं, उनसे लोगों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं, वहीं आज का समय ऐसा है, ऐसे लोग आज उभरकर सामने आते हैं कि उनके भीतर भले ही कुछ न हो, वे स्वयं को शाहरुख खान की तरह, मतलब कि जहाँ जैसी जरूरत है, जैसी डिमांड है, उस रूप में प्रस्तुत कर देंगे। गज़लों में अक्सर आशिक़-माशूक़ के रूप में बातें रखी जाती हैं, लेकिन वास्तविक ज़िंदगी में वह कोई भी हो सकता है, आपका बॉस भी हो सकता है! जिसे आप अपनी भीतरी खूबसूरती से, अपनी प्रतिभा से, अपनी सच्चाई से प्रभावित करना चाहते हैं, और दूसरे लोग उसको अपने प्रेज़ेंटेशन से प्रभावित कर लेते हैं, और ऐसा बार-बार होता है, क्योंकि आपको तो अपनी सच्चाई पर ही भरोसा है-
झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये और मैं था कि सच बोलता रह गया।
अब आखिर में अचानक, मुझे डॉ. धर्मवीर भारती की लिखी एक कहानी याद आ रही है- ‘गुलकी बन्नो’, वैसे मुझको इसका ताना-बाना कुछ याद नहीं है, बस इतना है कि एक कन्या, जो बहू बनकर आई थी मुहल्ले के एक गरीब परिवार में, उस पर इतनी मुसीबतें आती हैं, इतनी बार वह टूटती है, मुसीबतें झेलती है, कुछ बार बहुत दिन तक नहीं दिखती, लेखक सोचता है कि मर-खप गई है, फिर अचानक दिखाई दे जाती है, शरीर कंकाल हो चुका है, लेकिन वही मुस्कान, दांत निपोरती हुई पहले की तरह्।
सच्चे लोगों की परीक्षा ज़िंदगी कुछ ज्यादा ही लेती है, और आखिरी शेर इस गज़ल का प्रस्तुत है-
आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया।
आज वसीम बरेलवी साहब की इस गज़ल के बहाने आपसे कुछ बातें हो गईं।
कल मैंने अपने एक संस्मरण में, एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से अन्य लोगों के साथ स्वर्गीय कुमार शिव जी को भी याद किया था और उनके एक-दो गीतों का उल्लेख किया था| आज उनको श्रद्धांजलि स्वरूप उनका एक पूरा गीत यहाँ दे रहा हूँ| इस गीत में उन्होंने अपनी खुद्दारी की प्रभावी अभिव्यक्ति की है|
लीजिए आज प्रस्तुत है, स्वर्गीय कुमार शिव जी का यह गीत –
काले कपड़े पहने हुए सुबह देखी देखी हमने अपनी सालगिरह देखी !
हमको सम्मानित होने का चाव रहा, यश की मंडी में पर मंदा भाव रहा| हमने चाहा हम भी बनें विशिष्ट यहाँ, किन्तु हमेशा व्यर्थ हमारा दाँव रहा| किया काँच को काला सूर्यग्रहण देखा, और धूप भी हमने इसी तरह देखी !
हाथ नहीं जोड़े हमने और नहीं झुके, पाँव किसी की अगवानी में नहीं रुके| इसीलिए जो बैसाखियाँ लिए निकले, वो भी हमको मीलों पीछे छोड़ चुके| वो पहुँचे यश की कच्ची मीनारों पर, स्वाभिमान की हमने सख़्त सतह देखी !
आज फिर से प्रस्तुत है एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट- अपनी शुरू की ब्लॉग-पोस्ट्स में मैंने अपने जीवन के कुछ प्रसंगों, कुछ घटनाओं के बारे में लिखा था। आज जयपुर नगरी से जुड़ा एक बहुत पुराना प्रसंग दोहरा रहा हूँ।
श्रेष्ठ नवगीतकार श्री कुमार शिव जी की मृत्यु का दुखद समाचार मिला, उनकी स्मृति में यह ब्लॉग पोस्ट दुहरा रहा हूँ|
हज़ारों मील लंबे रास्ते तुझको बुलाते, यहाँ दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते है कौन सा वो इंसान यहाँ पर जिसने दुख ना झेला। चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला ।
फिलहाल जीवन के एक पड़ाव की बात कर रहा हूँ। मैंने 30 सितंबर,1980 की रात में दिल्ली छोड़ी क्योंकि 1अक्तूबर,1980 को मुझे आकाशवाणी, जयपुर में कार्यग्रहण करना था, हिंदी अनुवादक के रूप में। बहुत पुरानी बात है ना!
इत्तफाक से 2 अक्तूबर,1980 को ही वहाँ, रामनिवास बाग में, प्रगतिशील लेखक सम्मेलन था, शायद प्रेमचंद जी की स्मृतियों को समर्पित था यह सम्मेलंन। यह आयोजन काफी चर्चित हुआ था क्योंकि महादेवी जी इस आयोजन की मुख्य अतिथि थीं और अपने संबोधन में उनका कहना था कि हम जंगली जानवरों के लिए अभयारण्य बना रहे हैं, परंतु मनुष्यों के लिए भय का परिवेश बन रहा है।
महादेवी जी के वक्तव्य पर वहाँ मौज़ूद राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री- जगन्नाथ पहाड़िया नाराज़ हो गए, वो बोले कि ‘महादेवी जी की कवितायें तो कभी भी मेरी समझ में नही आईं, मैं यहाँ साहित्यकारों के लिए कुछ अनुदान की घोषणा करने आया था, अब नहीं करूंगा। सत्ता के नशे में चूर पहाड़िया ये समझ ही नहीं पाए कि महादेवी होने का मतलब क्या है! बाद में काफी दिनों तक इस पर बहस चली और जगन्नाथ पहाड़िया को माफी मांगनी पड़ी थी।
खैर मुझे यह आयोजन किसी और कारण से भी याद है। इस तरह की संस्थाओं पर, विशेष रूप से जिनके साथ ‘प्रगतिशील’ शब्द जुड़ा हो, उन पर सभी जगह कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा है। उनके लिए किसी का कवि या कहानीकार होना उतना आवश्यक नहीं है, जितना कम्युनिस्ट होना। वैसे मुझे सामान्यतः इस पर कोई खास आपत्ति नही रही है। वहाँ जाने से पहले मैं काफी समय से कवितायें, गीत आदि लिख रहा था और विनम्रतापूर्वक बताना चाहूंगा कि अनेक श्रेष्ठ साहित्यकारों से मुझे प्रशंसा भी प्राप्त हो चुकी थी।
जयपुर जाते ही क्योंकि इस आयोजन में जाने का अवसर मिल गया तो मुझे लगा कि यह अच्छा अवसर है कि यहाँ कविता पाठ करके, स्थानीय साहित्यकारों के साथ परिचय प्राप्त कर लिया जाए। रात में जब कवि गोष्ठी हुई तो मैंने भी अपनी एक ऐसी रचना का पाठ कर दिया, जिसके लिए मैं दिल्ली में भरपूर प्रशंसा प्राप्त कर चुका था। यह घटना भुलाना काफी समय तक मेरे लिए बहुत कठिन रहा। कोई रचना पाठ करता है तब रचना बहुत अच्छी न हो तब भी प्रोत्साहन के लिए ताली बजा देते हैं। लेकिन वहाँ मुझे लगा कि किसी ने मेरी कविता जैसे सुनी ही नहीं थी। ऐसा सन्नाटा मैंने वहाँ देखा। शायद उन महान आयोजकों को इस बात का अफसोस था कि एक अनजान व्यक्ति ने कविता-पाठ कर कैसे दिया!
खैर वहाँ एक-दो रचनाकारों को सुना, जिनसे बाद में घनिष्ठ परिचय बना, उनमें से एक हैं कृष्ण कल्पित, जो अभी शायद आकाशवाणी महानिदेशालय में कार्यरत हैं। उनके एक प्रसिद्ध गीत की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
राजा-रानी प्रजा मंतरी, बेटा इकलौता मां से कथा सुनी थी, जिसका अंत नहीं होता।
बिना कहे महलों में कैसे आई पुरवाई, राजा ने दस-बीस जनों को फांसी लगवाई।
राम-राम रटता रहता था, राजा का तोता। मां से कथा सुनी थी जिसका अंत नहीं होता॥
आकाशवाणी, जयपुर में 3 साल रहा, बहुत अच्छे कलाकारों और कवियों से वहाँ मुलाकात हुई। एक थे लाज़वाब तबला वादक ज़नाब दायम अली क़ादरी, बहुत घनिष्ठ संबंध हो गए थे हमारे। मेरे बच्चे का जन्मदिन आया तो वो स्वयं घर पर आए और घंटों तक गज़लें प्रस्तुत कीं। आकाशवाणी में वे तबला वादक थे, परंतु वे गायन के कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। वो बोलते भी थे कि सरकार को हाथ बेचे हैं , गला नहीं। इसके बाद जब तक हम वहाँ रहे, ऐसे अवसरों पर वे आकर कार्यक्रम करते रहे। एक बार हमारे मकान मालिक के बच्चे का जन्मदिन था, उनसे कहा तो बोले, शर्माजी आप तो हमारे घर के आदमी हैं, अगर हम हर किसी के यहाँ ऐसे ही गायेंगे,तो क्या ये ठीक होगा?
वहाँ रहते हुए आकाशवाणी की कई कवि गोष्ठियों में भाग लिया। स्वाधीनता दिवस के अवसर पर रिकॉर्ड की जा रही एक कवि गोष्ठी याद आ रही है, उसमें केंद्र निदेशक श्री गिरीश चंद्र चतुर्वेदी भी स्टूडियो में बैठे थे। प्रसिद्ध गीतकार कुमार शिव जी का नंबर आया तो वे बोले, यह गीत मैंने अपने जन्मदिन पर लिखा था, प्रस्तुत कर रहा हूँ-
काले कपड़े पहने हुए सुबह देखी, देखी हमने अपनी सालगिरह देखी।
इस पर केंद्र निदेशक तुरंत उछल पड़े, नहीं ये गीत नहीं चलेगा, कोई और पढ़िए। वास्तव में वह गीत स्वतंत्रता दिवस से ही जोड़कर देखा जाता।
उनके एक और गीत की पंक्तियां आज तक याद हैं-
फ्यूज़ बल्बों के अद्भुद समारोह में रोशनी को शहर से निकाला गया।
आकाशवाणी में मेरी भूमिका हिंदी अनुवादक की थी, इस प्रकार मैं प्रशासन विंग में था, लेकिन मेरी मित्रता वहाँ प्रोग्राम विंग के क्रिएटिव लोगों के साथ अधिक थी। एक पूरा आलेख आकाशवाणी के कार्यकाल पर लिखा जा सकता है, लेकिन फिलहाल इतना ही।
अंत में जयपुर के एक और अनन्य शायर मित्र को याद करूंगा- श्री मिलाप चंद राही। बहुत अच्छे इंसान और बहुत प्यारे शायर थे। जयपुर में रहते हुए ही एक दिन यह खबर आई कि दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। उनकी इन पंक्तियों के साथ उनको याद कर रहा हूँ-
रवां-दवां थी, सियासत में रंग भरते हुए, लरज़ गई है ज़ुबां, दिल की बात करते हुए।
ये वाकया है तेरे शहर से गुज़रते हुए, हरे हुए हैं कई ज़ख्म दिल के भरते हुए।
मुझे पता है किसे इंतज़ार कहते हैं, कि मैंने देखा है लम्हात को ठहरते हुए।
खुदा करे कि तू बाम-ए-उरूज़ पर जाकर किसी को देख सके सीढ़ियां उतरते हुए।
नजर-नवाज़ वो अठखेलियां कहाँ राही, चले है बाद-ए-सबा अब तो गुल कतरते हुए।
आज उर्दू के उस्ताद शायर रहे ज़नाब फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| एक खास बात ये है की हिन्दी के प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन जी भी अंग्रेजी के प्रोफेसर थे और ज़नाब फ़िराक़ गोरखपुरी साहब भी|
लीजिए आज प्रस्तुत है, फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ये खूबसूरत ग़ज़ल-
सितारों से उलझता जा रहा हूँ, शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ|
तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ, जहाँ को भी मैं समझा रहा हूँ|
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है, गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ|
अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट, ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ|
हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर, क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ|
ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत, तेरे हाथों मैं लुटता जा रहा हूँ|
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का, तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ|
भरम तेरे सितम का खुल चुका है, मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ|
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस, कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ|
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ|
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है, तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ|
ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप, “फ़िराक़” अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ|
ब्लॉग लेखन हो या जो भी गतिविधि हो, अक्सर हम वह चीज़ें, वे रचनाएँ अधिक शेयर करते हैं, जो ‘हमारे समय’ की होती हैं| जैसे फिल्मों की बात होती है तो मुझे वो ज़माना अधिक याद आता है जिसमें दिलीप कुमार जी, देव आनंद और मेरे प्रिय राज कपूर जी थे, गायकों में मुकेश जी, रफी साहब और किशोर कुमार आदि-आदि होते थे, गायिकाओं में तो लता जी और आशा जी थी हीं|
कविता के मामले में तो वह कवि सम्मेलनों का ज़माना याद आता है, जब दिल्ली में प्रतिवर्ष दो बार लाल किले पर विराट कवि सम्मेलन होते थे, राष्ट्रीय पर्वों- स्वाधीनता दिवस और गणतन्त्र दिवस के अवसर पर| अधिकांश कवि जिनकी रचनाएँ मैं शेयर करता हूँ, वे कवि सम्मेलनों के माध्यम से लोकप्रिय हुए थे|
लेकिन कुछ कवि मंच पर कम ही आते थे और अपनी रचनाएँ पढ़े जाने से लोगों तक पहुँचते थे| आज के कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी भी ऐसे ही थे| लीजिए प्रस्तुत है सर्वेश्वर जी की एक कविता-
अक्सर एक गन्ध मेरे पास से गुज़र जाती है, अक्सर एक नदी मेरे सामने भर जाती है, अक्सर एक नाव आकर तट से टकराती है, अक्सर एक लीक दूर पार से बुलाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहीं पर बैठ जाता हूँ, अक्सर एक प्रतिमा धूल में बन जाती है ।
अक्सर चाँद जेब में पड़ा हुआ मिलता है, सूरज को गिलहरी पेड़ पर बैठी खाती है, अक्सर दुनिया मटर का दाना हो जाती है, एक हथेली पर पूरी बस जाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से उठ जाता हूँ, अक्सर रात चींटी-सी रेंगती हुई आती है ।
अक्सर एक हँसी ठंडी हवा-सी चलती है, अक्सर एक दृष्टि कनटोप-सा लगाती है, अक्सर एक बात पर्वत-सी खड़ी होती है, अक्सर एक ख़ामोशी मुझे कपड़े पहनाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से चल पड़ता हूँ, अक्सर एक व्यथा यात्रा बन जाती है ।
आज एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ, जिसके कुछ शेर ग़ुलाम अली जी ने और जगजीत सिंह तथा चित्रा सिंह की जोड़ी ने भी गाए हैं| काफी लंबी ग़ज़ल है ये और सिर्फ एक घटना हो जाने पर ज़िंदगी कितनी बदल जाती है, ये इसमें बहुत खूबसूरती से दर्शाया गया है|
लीजिए आज प्रस्तुत है, अदीम हाशमी जी की लिखी ये खूबसूरत ग़ज़ल-
फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा भी न था, सामने बैठा था मेरे, और वो मेरा न था|
वो के ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू, मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था|
रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही, झाँककर देखा गली में कोई भी आया न था|
अक्स तो मौजूद था पर अक्स तनहाई का था, आईना तो था मगर उसमें तेरा चेहरा न था|
आज उसने दर्द भी अपने अलहदा कर दिए, आज मैं रोया तो मेरे साथ वो रोया न था|
मैं तेरी सूरत लिए सारे ज़माने में फिरा, सारी दुनिया में मगर, कोई तेरे जैसा न था|
आज मिलने की ख़ुशी में सिर्फ़ मैं जागा नहीं, तेरी आँखों से भी लगता है कि तू सोया न था|
ये भी सब वीरानियाँ उस के जुदा होने से थीं, आँख धुँधलाई हुई थी, शहर धुँधलाया न था|
सैंकड़ों तूफ़ान लफ़्ज़ों में दबे थे ज़ेर-ए-लब, एक पत्थर था ख़ामोशी का, के जो हटता न था|
याद करके और भी तकलीफ़ होती थी ‘अदीम’, भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था|
मस्लहत ने अजनबी हम को बनाया था ‘अदीम’, वरना कब इक दूसरे को हमने पहचाना न था|
कविताएं शेयर करने के क्रम में, मैं सामान्यतः आधुनिक कवियों की रचनाएँ शेयर करता हूँ और इसमें फिल्मों से जुड़े रचनाकारों को भी शामिल कर लेता हूँ, क्योंकि फिल्मों में भी अनेक श्रेष्ठ रचनाकारों ने अपना योगदान दिया है|
आज मैं छायावाद युग के एक स्तंभ रहे स्वर्गीय सुमित्रानंदन पंत जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| वास्तव में कविता का प्रत्येक युग एक महत्वपूर्ण पड़ाव है|
आज की रचना, उस युग में प्रेम की अभिव्यक्ति का एक सुंदर उदाहरण है, लीजिए प्रस्तुत है-
खिल उठा हृदय, पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!
खुल गए साधना के बंधन, संगीत बना, उर का रोदन, अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण, सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।
क्यों रहे न जीवन में सुख दुख क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख? तुम रहो दृगों के जो सम्मुख प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!
तन में आएँ शैशव यौवन मन में हों विरह मिलन के व्रण, युग स्थितियों से प्रेरित जीवन उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!
जो नित्य अनित्य जगत का क्रम वह रहे, न कुछ बदले, हो कम, हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम, जग से परिचय, तुमसे परिणय!
तुम सुंदर से बन अति सुंदर आओ अंतर में अंतरतर, तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर वरदान, पराजय हो निश्चय!
पुराने फिल्मी गीतों को सुनकर यही खयाल आता है कि कितनी मेहनत करते थे गीतकार, संगीतकार और गायक भी उन गीतों की अदायगी में जैसे अपनी आत्मा को उंडेल देते थे|
लीजिए आज प्रस्तुत है, 1960 में रिलीज़ हुई फिल्म- ‘बरसात की रात’ के लिए रफ़ी साहब का गाया यह गीत, जिसे लिखा था साहिर लुधियानवी जी ने और इसका संगीत दिया था रोशन जी ने-
ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, एक अंजान हसीना से मुलाक़ात की रात|
हाय वो रेशमी जुल्फ़ों से बरसता पानी, फूल से गालों पे रुकने को तरसता पानी| दिल में तूफ़ान उठाते हुए जज़्बात की रात| ज़िन्दगी भर…
डर के बिजली से अचानक वो लिपटना उसका, और फिर शर्म से बलखा के सिमटना उसका, कभी देखी न सुनी ऐसी तिलिस्मात की रात| ज़िन्दगी भर…
सुर्ख आँचल को दबाकर जो निचोड़ा उसने, दिल पर जलता हुआ एक तीर सा छोड़ा उसने, आग पानी में लगाते हुए हालात की रात| ज़िन्दगी भर…
मेरे नगमों में जो बसती है वो तस्वीर थी वो, नौजवानी के हसीं ख्वाब की ताबीर थी वो, आसमानों से उतर आई थी जो रात की रात| ज़िन्दगी भर…