
जिनके ख़ातिर कभी इल्ज़ाम उठाये, “फ़ाकिर”,
वो भी पेश आये हैं इंसाफ़ के शाहों की तरह|
सुदर्शन फ़ाकिर
आसमान धुनिए के छप्पर सा
जिनके ख़ातिर कभी इल्ज़ाम उठाये, “फ़ाकिर”,
वो भी पेश आये हैं इंसाफ़ के शाहों की तरह|
सुदर्शन फ़ाकिर
हर तरफ़ ज़ीस्त की राहों में कड़ी धूप है दोस्त,
बस तेरी याद के साये हैं पनाहों की तरह|
सुदर्शन फ़ाकिर
अपनी नज़रों में गुनाहगार न होते, क्यों कर,
दिल ही दुश्मन हैं मुख़ालिफ़ के गवाहों की तरह|
सुदर्शन फ़ाकिर
आज एक बार फिर मैं अपने प्रिय गीतकार और कुशल मंच संचालक श्री सोम ठाकुर जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| सोम जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री सोम ठाकुर जी का यह गीत, जिसमें ऋतुओं के संधि काल का विशेष वर्णन किया गया है –
है ऋतुओं की संधि
दिशायें हुई सयानी रे|
दुबली –पतली धार
बही नदिया के कूलो में
बड़े हो गये शूल
शीश तक चढ़े बबूलों में
क्या जागा संकोच
जम गया बहता पानी रे|
कहे ना जाएं दर्द
हुआ कुछ ऐसा अंधेरों को
चंपक – अंजुरी गहे
मनौती गूँथे गज़रों को
है तन –मन की बात
सभी जानी -अंजानी रे
थके -थके से दिखे
गगन चढ़ते सूरज राजा
कैसे बिरहा बोल
सुनाए बसवट का बाजा
पीली -पीली धूप
हुई है दिन की रानी रे
है ऋतुओं कि संधि
दिशायें हुई सयानी रे|
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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मोहब्बत में ‘फ़िराक़’ इतना न ग़म कर,
ज़माने में यही होता रहा है|
फ़िराक़ गोरखपुरी
जुदा आग़ाज़ से अंजाम से दूर,
मोहब्बत इक मुसलसल माजरा है|
फ़िराक़ गोरखपुरी
गुलाबी होती जाती हैं फ़ज़ाएँ,
कोई इस रंग से शरमा रहा है|
फ़िराक़ गोरखपुरी
जिसे चौंका के तूने फेर ली आँख,
वो तेरा दर्द अब तक जागता है|
फ़िराक़ गोरखपुरी
शिकायत तेरी दिल से करते करते,
अचानक प्यार तुझ पर आ गया है|
फ़िराक़ गोरखपुरी
न जी ख़ुश कर सका तेरा करम भी,
मोहब्बत को बड़ा धोका रहा है|
फ़िराक़ गोरखपुरी