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कुछ कमी ये मत कहो!
जितने वादे कल थे उतने आज भी मौजूद हैं, उन के वादों में हुई है कुछ कमी ये मत कहो| जाँ निसार अख़्तर
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आज थक कर रह गया है!
पाँव इतने तेज़ हैं उठते नज़र आते नहीं, आज थक कर रह गया है आदमी ये मत कहो| जाँ निसार अख़्तर
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यारो अभी ये मत कहो!
कट सकी हैं आज तक सोने की ज़ंजीरें कहाँ, हम भी अब आज़ाद हैं यारो अभी ये मत कहो| जाँ निसार अख़्तर
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महँगाई!
आज एक बार फिर मैं हिन्दी के प्रसिद्ध हास्य कवि स्वर्गीय काका हाथरसी जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| इनकी कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं| लीजिए आज प्रस्तुत हैं स्वर्गीय काका हाथरसी जी की यह कविता – जन-गण मन के देवता, अब तो आँखें खोलमहँगाई से हो गया, जीवन डाँवाडोलजीवन…
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दीवानगी ये मत कहो!
हम से दीवानों के बिन दुनिया सँवरती किस तरह, अक़्ल के आगे है क्या दीवानगी ये मत कहो| जाँ निसार अख़्तर
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बदन की गुनगुनाहट तो सुनो!
उस नज़र की उस बदन की गुनगुनाहट तो सुनो, एक सी होती है हर इक रागनी ये मत कहो| जाँ निसार अख़्तर
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आवारगी ये मत कहो!
जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो, हम भी कर सकते हैं ऐसी शायरी ये मत कहो| जाँ निसार अख़्तर
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ज़ुल्फ़ के ख़म याद आ गए!
सुलझाईं जब भी ज़ीस्त की ‘साग़र’ ने गुत्थियाँ, नागाह तेरी ज़ुल्फ़ के ख़म याद आ गए| साग़र ख़य्यामी
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तो हम याद आ गए!
मुद्दत हुई है बिछड़े हुए अपने-आप से, देखा जो आज तुम को तो हम याद आ गए| साग़र ख़य्यामी
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इतिहास का पर्चा!
आज एक बार फिर मैं हिन्दी के श्रेष्ठ हास्य व्यंग्य कवि स्वर्गीय ओम प्रकाश आदित्य जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| इनकी कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं| लीजिए आज प्रस्तुत हैं स्वर्गीय ओम प्रकाश आदित्य जी की यह कविता – इतिहास परीक्षा थी उस दिन, चिंता से हृदय धड़कता थाथे…